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President Draupadi Murmu inaugurated the National Literary Conference at Rashtrapati Bhavan
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राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने राष्ट्रपति भवन में राष्ट्रीय साहित्य सम्मेलन का उद्घाटन किया

नई दिल्ली स्थित राष्ट्रपति भवन सांस्कृतिक केंद्र में आयोजित एक ऐतिहासिक कार्यक्रम में संस्कृति मंत्रालय के अंतर्गत साहित्य अकादमी ने राष्ट्रपति भवन के सहयोग से “कितना बदल चुका है साहित्य?” विषय पर एक साहित्यिक सम्मेलन का आयोजन किया। इस कार्यक्रम में देश भर से प्रतिष्ठित लेखकों, कवियों और साहित्यिक विचारकों सम्मिलित हुए। सम्मेलन का उद्घाटन राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने किया।

राष्ट्रपति मुर्मु ने अपने उद्घाटन भाषण में लेखकों के प्रति अपने आजीवन सम्मान और प्रशंसा को व्यक्त किया, उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति भवन में लेखकों की मेजबानी करना उनकी एक प्रिय इच्छा थी। उन्होंने उत्कलमणि गोपबंधु दास की उड़िया में कही गई पंक्तियों का स्मरण किया, जिसका उन्होंने अर्थ बताया, “मैं इस देश की धरती पर जहाँ भी हूँ, मैं उतनी ही आभारी हूँ जितनी मैं जगन्नाथ पुरी यात्रा के परिसर में होती।” उन्होंने साहित्य से समानताएँ बताते हुए वाल्मीकि रामायण से सीता-राम की कहानी को समाज में एकता की शक्ति के रूप में उद्धृत किया। अपने व्यक्तिगत अनुभव पर विचार करते हुए उन्होंने साझा किया कि कैसे फकीर मोहन सेनापति की कहानी “रेवती” ने उनके जीवन पर गहरा प्रभाव डाला, साहित्य के प्रभाव को उजागर किया। उनके अनुसार, आम लोग साहित्य से प्रेरणा ले सकते हैं और अपने आदर्शों को साकार करने का प्रयास कर सकते हैं। उन्होंने प्रतिभा रे के उपन्यास द्रौपदी को मानवीय संवेदनाओं में निहित एक उत्कृष्ट साहित्य का एक आदर्श उदाहरण बताया। उन्होंने कहा कि साहित्य समय के साथ परिवर्तित होता है लेकिन करुणा और संवेदनशीलता जैसे कुछ तत्व हैं,जिनमें परिवर्तन नहीं होता। उन्होंने आगे कहा कि व्यक्ति के अनुभवों पर आधारित होने के कारण आज के साहित्य को उपदेशात्मक साहित्य नहीं कहा जा सकता।

केंद्रीय पर्यटन एवं संस्कृति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत ने मुख्य अतिथि के रूप में संबोधित करते हुए कहा कि साहित्य कितना बदल गया है, यह पूछने के बजाय यह विचार करना अधिक उचित होगा कि समाज में कितना बदलाव आया है, क्योंकि साहित्य समाज की भावना होती है। उन्होंने मुंशी प्रेमचंद का उदाहरण देते हुए कहा कि वे हमेशा सामाजिक बुराइयों पर प्रहार करते रहे। उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कुशल नेतृत्व में हमारा देश सांस्कृतिक पुनरुत्थान के युग से गुजर रहा है। राष्ट्रपति के तत्वावधान में इस कार्यक्रम का आयोजन देश में एक जाग्रत सांस्कृतिक पुनर्जागरण का प्रतीक है।

संस्कृति मंत्रालय की विशेष सचिव और वित्तीय सलाहकार रंजना चोपड़ा ने साहित्य अकादमी की उपलब्धियों पर प्रकाश डाला, जिसमें नेताजी सुभाष बोस पर इसका कार्य और उन्मेषा जैसे अंतरराष्ट्रीय साहित्यिक आयोजन सम्मिलित हैं। उन्होंने तेजी से हो रहे तकनीकी और सामाजिक परिवर्तनों के बीच साहित्य के सामने आने वाली चुनौतियों को स्वीकार किया।

उद्घाटन समारोह की शुरुआत में, विशेष सचिव और वित्तीय सलाहकार रंजना चोपड़ा ने उपस्थित लोगों को संबोधित करते हुए साहित्य अकादमी की संस्कृति मंत्रालय के अंतर्गत सबसे प्रमुख संस्थाओं में से एक के रूप में प्रशंसा की और हाल के वर्षों में इसकी कई उपलब्धियों और प्रभावशाली गतिविधियों पर प्रकाश डाला। इसमें नेताजी सुभाष बोस पर रिकॉर्ड समय में पुस्तक प्रकाशित करना तथा उन्मेषा जैसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर के कार्यक्रम आयोजित करना आदि सम्मिलित हैं। उन्होंने इन्हें साहित्य अकादमी की महान उपलब्धियाँ बताया। उन्होंने कहा कि साहित्य का भविष्य तकनीकी और सामाजिक प्रगति के साथ विकसित होगा, जिससे इसकी मौलिकता को बनाए रखने की चुनौतियाँ सामने आएंगी।

उद्घाटन समारोह के बाद एक कवि सम्मेलन “सीधे दिल से” का आयोजन हुआ, जिसमें विभिन्न भारतीय भाषाओं के कवियों ने भागीदारी की। साहित्य अकादमी के सचिव डॉ के श्रीनिवासराव ने कवियों को अंगवस्त्रम से सम्मानित किया। इस सत्र के दौरान डॉ माधव कौशिक ने अतिथि के रूप में कुछ उर्दू दोहे और एक-दो ग़ज़लें सुनाईं। अपनी कविताएँ सुनाने वाले कवियों में रणजीत दास (बंगाली), ममंग दाई (अंग्रेजी), दिलीप झावेरी (गुजराती), अरुण कमल (हिंदी), महेश गर्ग (हिंदी), शफी शौक (कश्मीरी), दमयंती बेशरा (संथाली) और रवि सुब्रमण्यन (तमिल) सम्मिलित थे। अपनी नम भावनाओं से ओतप्रोत अपने शब्दों में सभी कवियों ने आनंद, शोक, प्रेम और उत्कंठा की अनछुई अभिव्यक्ति साझा की। सत्र की अध्यक्षता कर रहे प्रख्यात उर्दू कवि और विद्वान शीन काफ़ निज़ाम ने कहा कि कविता सुनी नहीं जाती बल्कि महसूस की जाती है। उन्होंने अपनी कई लोकप्रिय उर्दू ग़ज़लें सुनाईं और सत्र का समापन किया। यह कार्यक्रम भारत की साहित्यिक विविधता का उत्सव था और इसकी चिरस्थायी विरासत और भविष्य की दिशा पर सार्थक चिंतन था।

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